प्रिय पाठकों… इस ब्लॉग में हिन्दी साहित्य के प्रथम कालखंड – आदिकाल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी जैसे – आदिकालीन साहित्य की विभिन्न प्रवृतियां, प्रथम कालखण्ड का नामकरण, हिंदी साहित्य के प्रथम कवि उनको मानने वाले इतिहासकार, सिद्ध, नाथ, जैन, रासो व आदिकालीन फुटकर साहित्य के बारे में सम्पूर्ण जानकारी सरल व सुव्यवस्थित ढंग से उपलब्ध करवाई गई है। यदि आपको हमारे द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी अच्छी लगे तो अपने दोस्तों के साथ साझा अवश्य करें। आप अपने सुझाव हमें Contact पेज के माध्यम से प्रेषित कर सकते हैं।
आदिकाल का इतिहास
आदिकाल [ 1050-1375 वि.सं. या 993 ई. – 1318 ई. ]
हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग 8 वीं शताब्दी से लेकर 14 वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसका समय 1050 वि.सं. से 1375 वि.सं. माना है। इस युग को ‘आदिकाल‘ नाम डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी से द्वारा दिया गया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल‘, जॉर्ज ग्रियर्सन ने चारणकाल, आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘वीरकाल‘ नाम दिया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस कालखंड को बीजवपन काल नाम दिया। डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर इसको ‘संधि-चारणकाल’ कहा है।
Table of Contents
क्र.सं. | नामकरण | साहित्यकार |
1. | आदिकाल | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी |
2. | वीरगाथाकाल | आचार्य रामचंद्र शुक्ल |
3. | आरंभिक काल | मिश्रबंधु |
4. | प्रारंभिक काल / शून्य काल | डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त |
5. | सिद्ध सामंत युग | राहुल सांकृत्यायन |
6. | चारण काल | ग्रियर्सन |
7. | संधि चारण काल | डॉ. रामकुमार वर्मा |
8. | वीर काल | विश्वनाथ प्रसाद मिश्र |
9. | बीजवपन काल | महावीर प्रसाद द्विवेदी |
10. | अंधकार काल | कमल कुलश्रेष्ठ |
11. | अपभ्रंश काल | चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बच्चन सिंह, धीरेंद्र वर्मा |
12. | जयकाल | रमाशंकर शुक्ल “रसाल” |
13. | आधार काल | डॉ. सुमन राजे |
क्र.सं. | इतिहासकार | प्रथम कवि |
1. | आचार्य रामचंद्र शुक्ल | राजा मुंज और भोज |
2. | चंद्रधर शर्मा गुलेरी | राजा मुंज |
3. | हजारी प्रसाद द्विवेदी | अब्दुल रहमान / अद्दहमाण |
4. | डॉ. रामकुमार वर्मा | स्वयंभू ( समय – 693 ई. ) |
5. | राहुल सांकृत्यायन | सिद्ध सरहपा ( सरहपाद ) समय – 769 ई. ( सर्वप्रथम ) |
6. | शिवसिंह सेंगर | पुष्य / पुंड |
7. | गणपति चंद्रगुप्त | शालिभद्र सूरी |
8. | डॉ. बच्चन सिंह | विद्यापति |
हिन्दी साहित्य की प्रथम रचना
1. देवसेन रचित – “श्रावकाचार” (933 ई.) – सर्वमान्य मत
- इस रचना में 250 दोहों में श्रावक धर्म के आचार-विचार का वर्णन है।
आदिकाल का साहित्य विभाजन :-
(5) भाग :-
1. रासो साहित्य / वीरगाथात्मक काव्य |
2. रास साहित्य / जैन साहित्य |
3. सिद्ध साहित्य |
4. नाथ साहित्य |
5. फुटकर साहित्य / लौकिक साहित्य / आदिकालीन गद्य |
फुटकर साहित्य :- 1. विद्यापति 2. अमीर खुसरो
लौकिक साहित्य :- 1. अब्दुल रहमान 2. कवि कल्लोल / कुशललाभ – ढोला मारू का दूहा
आदिकालीन गद्य :- रोड़ा कृत राहुलवेल, वर्ण रत्नाकर – ज्योतिरीश्वर ठाकुर, उक्ति व्यक्ति प्रकरण – दामोदर कवि
1. रासो साहित्य
रासो साहित्य शब्द की व्युत्पति :-
1. गार्सा-द-तासी – राजसूय / राजसू से – पृथ्वीराज रासो
2 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल “रसायण” शब्द से
आ. रामचन्द्र शुक्ल ने “रसायण’ शब्द से रासो की व्युत्पति मानी है। आधार ग्रंथ – बीसलदेव रासो
“संवत् बारह सौ बहोत्तरा मझारी, जेठ बदी नवमी बुधवारि।
नाल्ह रसायण आंरभई, सारदा तूठी ब्रह्मकुमारि।।”
- कविराजा श्यामलदास तथा काशीप्रसाद जायसवाल : ‘रहस्य‘ शब्द से
- पंडित हरप्रसाद शास्त्री – ‘राजयश‘
- डॉ. दशरथ शर्मा और नंददुलारे वाजपेयी – ‘रास‘ शब्द से
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, माता प्रसाद गुप्त, गणपति चंद्रगुप्त – अब्दुल रहमान के संदेश रासक से
- नरोत्तम स्वामी – ‘रसिक‘ शब्द से
रासो साहित्य की प्रवृत्तियां
- वीर तथा श्रृंगार रस का सांगोपांग चित्रण
- ऐतिहासिकता का अभाव
- युद्धों का सजीव चित्रण
- पिंगल तथा डिंगल भाषा का प्रयोग
पिंगल | बृज + पूर्वी राजस्थानी | प्रेम निरूपण |
डिंगल | पश्चिमी राजस्थानी | युद्धों का वर्ण |
- लोक जीवन से इत्तर साहित्य
- आश्रयदाताओं की प्रशंसा ( प्रशस्ति काव्यों की प्रधानता )
- कल्पना की अतिशयता
- सौंदर्य तथा वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण
- प्रकृति का आलंबन तथा उद्दीपन दोनों ही रूपों का चित्रण
- विविध छंदालंकारों का प्रयोग
- प्रबंध काव्यों की प्रधानता
- सीमित मात्रा में विरह तथा प्रेम निरूपक लघु काव्यों का सृजन
पृथ्वीराज रासो
रचयिता – चंद्र बरदाई
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस ग्रंथ को बारहवीं शताब्दी में रचित माना है।
- माताप्रसाद गुप्त ने इसे चौदहवीं शताब्दी की रचना माना है।
- अधिकतर विद्वान इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं।
- 69 समय में विभक्त रचना “आचार्य शुक्ल” ने कहा कि ‘चंद्रबरदाई‘ हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो‘ हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।
- चंद्रबरदाई का मूल नाम “बलिद्वय” है।
- वीर तथा श्रृंगार रस इस ग्रंथ के अंगीरस है।
- छंदों का वैविध्य होते हुए भी इस रचना में छप्पय की प्रधानता है।
- शिवसिंह सेंगर ने चंद्रवरदाई को ‘छप्पय का राजा’ कहा है।
“हिंदी का वास्तविक प्रथम कवि चंद्रवरदाई को ही कहा जा सकता है।” – मिश्रबंधु
- कर्नल जेम्स टॉड ने अपने ग्रंथ “एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान” में पृथ्वीराज रासो को “संगोपता नेम” नाम से संबोधित किया है।
- डॉ. वूलर को कश्मीर के संस्कृत कवि जयानक द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो की एक खंडित प्रति मिली जिनके सन् – संवत् पृथ्वीराज रासो से मेल नहीं खा रहे थे तथा उन्होंने सर्वप्रथम इस ग्रंथ को संदिग्ध माना हैं।
पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण मिलते हैं –
संस्करण का नाम | कुल छंद | विशेष |
प्रथम संस्करण / वृहद्तम संस्करण ( 69 समय ) | 16306 छंद | काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इस ग्रंथ की 1585 में प्रकाशित कृति के आधार पर संपादन किया। |
द्वितीय संस्करण / मध्यम संस्करण | 7000 छंद | |
तृतीय संस्करण / लघु संस्करण | 3500 छंद | |
चतुर्थ संस्करण / लघुतम संस्करण | 1300 छंद | डॉ दशरथ शर्मा ने इसी संस्करण को मूल रासो / प्रमाणिक माना है। |
रासो की प्रमाणिकता के संबंध में तीन मत :-
अप्रमाणिक | अर्द्ध प्रमाणिक | प्रामाणिक |
डॉ. वूलर | आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी | कर्नल जेम्स टॉड |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल | अगरचंद नाहटा | मिश्रबंधु |
डॉ. रामकुमार वर्मा | सुनीति कुमार चटर्जी | जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन |
कविराजा श्यामलदास | सुनीति कुमार चटर्जी | डॉ. श्यामसुंदर दास |
गौरीशंकर हीराचंद ओझा | मुनि जिन विजय | मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या |
मुरारीदान | अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध” | |
मुंशी देवीप्रसाद | मथुरा प्रसाद दीक्षित | |
डॉ. नगेंद्र | ||
डॉ. दशरथ शर्मा |
- डॉ. नगेंद्र ने पृथ्वीराज रासो को ‘घटनाकोश‘ कहा है।
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘शुक-शुकी‘ संवाद में रचित अंश को ही प्रमाणिक माना है, शेष अंश को प्रेक्षिप्त मानते हैं।
- मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या ने पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए ‘अनंत संवत्‘ की परिकल्पना प्रस्तुत की। उनके अनुसार रासो में वर्णित समय में 90 वर्ष जोड़ देने पर वह प्रामाणिक सिद्ध हो जाता है।
- पृथ्वीराज रासो के 57 वें समय को रासो की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। 57 वॉं समय – “कयमास वध”
- पृथ्वीराज रासो का उत्तरार्द्ध चंद के पुत्र जल्हण द्वारा रचित माना जाता है। इस संबंध में एक उक्ति चर्चित है। –
“पुस्तक जल्हण हत्थ दै चले गज्जन नृप काज”
पृथ्वीराज रासो को अप्रमाणिक मानने के मुख्य कारण :-
- पृथ्वीराज चौहान की माता का नाम कर्पूरी देवी था जो रासो में कमला नाम से वर्णित है।
- पृथ्वीराज रासो में परमार, चालुक्य और चौहान अग्निवंशीय बताए गए हैं जो बाद में सूर्यवंशी प्रामाणित हुए।
- रासो में पृथ्वीराज चौहान के 14 विवाहों का वर्णन है जो पृथ्वीराज के जीवनकाल से मेल नहीं खाते।
- पृथ्वीराज के हाथों गौरी की मृत्यु इतिहास संगत नहीं है।
- पृथ्वीराज द्वारा सोमेश्वर का वध इतिहास सम्मत नहीं है।
पृथ्वीराज रासो की चर्चित पंक्ति :-
- इस ग्रंथ को महाकाव्यों की श्रेणी में “विकसनशील महाकाव्य” कहा जाता है।
- बाबू गुलाबराय ने इस ग्रंथ को “स्वाभाविक विकासशील” महाकाव्य कहा है।
परमाल रासो
- रचनाकार – जगनिक – रासो में सर्वाधिक प्रामाणिक रचना
- कालिंजर के राजा परमार्दिदेव और उनके दो वीर सेनापति आल्हा और ऊदल की वीरता के प्रसंग को इस रचना का विषय बनाया गया।
- यह ग्रंथ अपने मूल रूप में गेय शैली में था क्योंकि आल्हा वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला उस क्षेत्र का राग था।
- आल्हा और ऊदल – बनाफर जाति
- फर्रुखाबाद के तत्कालीन जिलाधीश ‘चार्ल्स इलियट‘ ने इसका संपादन 1865 में ‘आल्हा खण्ड‘ नाम से करवाया।
- डॉ. श्यामसुन्दर दास ने नागरी प्रचारिणी सभा काशी के द्वारा इसका संपादन ‘परमाल रासो‘ नाम से किया।
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस ग्रंथ को भी अर्द्धप्रामाणिक माना।
इस ग्रंथ के बारे में एक दोहा भी प्रचलित है –
बीसलदेव रासो
बीसलदेव रासो के रचनाकाल को इंगित करने वाली पंक्ति :-
“संवत् बारह सौ बहोतरा मझरी जेठ बदी नवमी बुधवारी।
नाल्ह रसायन आरम्भई सारदा तूठी ब्रह्मकुमारी।।”
- इस ग्रंथ में बीसलदेव ( विग्रहराज – IV ) तथा रानी राजमती नायक-नायिका के रूप में वर्णित है।
- इस ग्रंथ का संपादन माता प्रसाद गुप्त तथा अगरचन्द नाहटा ने किया।
बीसलदेव रासो चार खण्डों में विभक्त है :-
(1) प्रथम खण्ड :- बीसलदेव व राजमती का विवाह
(2) द्वितीय खण्ड :- राजमती से रूठकर बीसलदेव का उड़ीसा चले जाना।
(3) तृतीय खण्ड :- राजमती का विरह वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना।
(4) चतुर्थ खण्ड :- राजा भोज द्वारा अपनी पुत्री राजमती को मालवा ले जाना और बीसलदेव का रूठी हुई राजमती को मनाकर लाना।
बीसलदेव रासो के बारे में विशेष तथ्य :-
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे प्रथम वीर काव्य कहा है।
- बारहमासा पद्धति में विरह का वर्णन प्रथम बार इस ग्रंथ में देखा गया।
- बीसलदेव रासो हिन्दी का प्रथम ‘गेय पद‘ काव्य माना जाता है।
हम्मीर रासो
रचनाकार – शारंगधर / जोधराज
- यह ग्रंथ अनुपलब्ध है किन्तु लक्ष्मीधर रचित ‘प्राकृत पेंगलम ग्रंथ में हम्मीर रासो से सम्बन्धित 8 छंद मिले हैं जिनके आधार पर ग्रंथ की परिकल्पना की गई है।
- इस ग्रंथ में चौहान वंशीय हमीर का वर्णन है।
- महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने हम्मीर रासो के छन्दो को ‘जज्जल कवि रचित माना है।
खुमाण रासो
- रचनाकार – दलपति विजय
- इस ग्रंथ में राव खुम्माण से लेकर राजसिंह तक के राजाओं का वर्णन है।
- इस ग्रंथ में बगदाद के खलीफा ‘अलमामू‘ तथा चितौड़ के राव ‘खुम्माण सिंह‘ के मध्य युद्ध का वर्णन है।
- इस रचना का रचनाकाल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 9 वीं शताब्दी माना है किन्तु अधिकतर विद्वान इसे 17 वीं शताब्दी की रचना मानते है।
विजयपाल रासो
- रचनाकार – नलसिंह भाट
- यह रचना मूलत: अपभ्रंश में है। इसके 42 (बयालिस) छंद ही उपलब्ध हुए।
- विजयगढ़ (करौली राज्य) के राजा विजयपाल तथा राजा पंग के मध्य युद्ध का वर्णन।
2. सिद्ध साहित्य / बौद्ध साहित्य
- सिद्धों का उद्भव बौद्ध धर्म की वज्रयान उपशाखा से हुआ।
- सिद्ध संख्या में 84 थे जिनका साहित्य तथा विचारधारा केवल आदिकाल ही नहीं, भक्तिकाल की निर्गुण धारा की भी भूमिका निर्धारित करता है।
84 सिद्धों में 4 योगिनी / महिला सिद्ध थी :-
- लक्ष्मीकारा
- कनकलापा
- मेखलापा
- मणिभद्रा
सिद्ध साहित्य की प्रवृत्तियाँ
- अटपटी वाणी ( उलटवासियाँ )
- तंत्र साधना पर बल
- देवी तारा की उपासना
- शिव और शक्ति के युगल रूप की पूजा
- जातिप्रथा तथा वर्णभेद का निषेध
- बौद्ध धर्म का प्रभाव
- ब्राह्मण / वैदिक धर्म का विरोध
- संध्या भाषा
- पंच मकार की प्रवृत्ति – 1. माँस 2. मदिरा 3. मछली 4. मुद्रा 5. मैथुन
सिद्ध सरहपा
- सिद्धों में सर्वाधिक प्राचीन सरहपा / सरहपाद माने जाते हैं।
- सिद्ध सरहपा का समय पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने 769 ई. माना है, जो सर्वमान्य है।
- डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने सरहपा का समय 633 ई. ( वि.स. 690 ) माना है।
- सरहपा का अन्य नाम सरोजवज्र या राहुलभद्र भी है।
- सिद्ध सरहपा की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘दोहाकोश‘ है लेकिन इन्होने ‘चर्यागीत‘ की रचना की है।
- हिन्दी में आगे जाकर दोहा-चौपाई शैली का विकास ‘दोहाकोश‘ के आधार पर हुआ।
- दोहाकोश में सिद्धों की साधना के छन्दों के साथ उनकी रहस्यवादी प्रवृत्ति का भी दर्शन होता है।
- सरहपा के ग्रंथ दोहाकोश का संपादन डॉ. प्रबोधचंद्र बागची ने किया।
‘बौद्धगान औ दोहा‘ नाम से प्राचीन बांग्ला भाषा में सरहपा और कृष्णाचार्य के दोहों को किसने संपादित किया ? – महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने
“जहँ मन पवन न संचरई, रवि ससि नहीं पवेश।
तेहि वट चित विसाम करू, सरह कहे उवेस।।
दोहाकोश – सरहपा
- सरहपा के बाद उनके शिष्य शबरपा का स्थान आता है, जिनकी दो रचनाएँ प्रसिद्ध है – 1. चर्चापद 2. महामुद्रावज्रगीति
लुइपा
ये शबरपा के शिष्य थे। इनका नाम सिद्धों में सर्वाधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। डॉ. रामकुमार वर्मा तथा डॉ. नगेंद्र ने लुइपा को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध माना है।
- लुइपा की रचना – लुइपादगीतिका
“काआ तरुवर पंच विड़ाल, चंचल चीए पइठोकाल”
सिद्ध साहित्य में पंच विड़ाल
- सिद्ध साहित्य में पंच विडाल से आशय पंच प्रतिबंध है। – 1. आलस्य 2. हिंसा 3. काम 4. चिकित्सा 5. मोह
- दोहाकोश, जो कि सरहपा की रचना है, जो परिनिष्ठित अपभ्रंश में रचित है जबकि चर्चापदों की रचना अवहट्ट में हुई है।
Q. आदिकालीन साहित्य से संबंधित कौनसा कथन सही नहीं है ?
A. दोहा आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य का प्रमुख छंद है।
B. आदिकालीन बौद्ध सिद्धों ने दोहाकोश के साथ-साथ चर्यपदों की भी रचना की है।
C. चर्यापद एक प्रकार के गीत होते है, जो अनुष्ठान के समय गाए जाते हैं।
D. दोहाकोश और चर्यागीतों की भाषा शैली में कोई अन्तर नहीं है।
सही उत्तर – D
- दोहाकोश के दोहों में खण्डन-मण्डन का भाव है जबकि चर्चापदों में सिद्धों की अनुभूति एवं रहस्यात्मक भावनाओं का वर्णन है।
अन्य सिद्ध :- डोंभिपा, कण्हपा (कृष्णाचार्य), कुक्कुरिपा
सिद्ध साहित्य का अध्ययन विशेषतः चार विद्वानों द्वारा किया गया है :-
- महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री – बौद्धगान औ दोहा
- डॉ. शहीदुल्ला – ला चॉटस मिसतिक्स द कान्ह ऐंद सरह
- डॉ. प्रबोध चन्द्र बागची – दोहाकोश का संपादन
- महापण्डित राहुल सांकृत्यायन – हिन्दी काव्यधारा ( सिद्धों की वाणियों और पदों का विवेचन )
3. नाथ साहित्य
संधिकाल के उत्तरार्द्ध में सिद्धों के वज्रयान की “सहज साधना” नाथ संप्रदाय के रूप में पल्लवित हुई।
नाथों की संख्या 9 मानी जाती है, जो निम्न प्रकार है :-
क्र.सं. | नाम |
1. | आदिनाथ (भगवान शिव) |
2. | मत्स्येंद्रनाथ |
3. | गोरखनाथ |
4. | चर्पटनाथ |
5. | चौरंगीनाथ |
6. | गाहिणीनाथ |
7. | ज्वालेंद्रनाथ |
8. | भर्तृहरिनाथ |
9. | गोपीचन्द्र नाथ |
नाथ साहित्य / संप्रदाय की प्रवृतियां
- बाह्याचार, तीर्थाटन, जात-पात, ईश्वर के विविध रूपों की आराधना आदि का विरोध।
- शुद्धाचरण पर बल
- अंतस्साधना पर बल
- नारीभोग का विरोध
- गुरु को सर्वोच्च स्थान
- इंद्रिय निग्रह, छटचक्र भेदन, वैराग्य, शून्य समाधि आदि साधना के प्रकारों का प्रचार प्रसार
- रहस्यवादी भावना
- सधुक्कड़ी भाषा
- प्रतिकात्मकता तथा रूपकों का प्रयोग
- हठयोग पर बल ( हठ में ‘ह’ सूर्य का प्रतीक और ‘ठ’ चन्द्रमा का प्रतीक माना जाता है। )
- आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नाथ पंथ को सिंह मार्ग, अवधूत मत, योग संप्रदाय आदि नाम दिया।
- हिन्दी साहित्य में हठयोग के प्रवर्तक गोरखनाथ माने जाते हैं।
गोरखनाथ भक्ति के विरोधी थे, इसलिए गोस्वामी तुलसीदास लिखते है –
“गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग”
गोस्वामी तुलसीदास
गोरखनाथ का समय अलग-अलग विद्वानों के अनुसार :-
विद्वान | गोरखनाथ का समय |
राहुल सांकृत्यायन | 845 ई. |
हजारी प्रसाद द्विवेदी | 9 वीं शताब्दी |
पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल | 11 वीं शताब्दी |
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल व डॉ. रामकुमार वर्मा | 13 वीं शताब्दी |
- डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ की 14 रचनाओं का संकलन कर ‘गोरखबानी‘ नाम से संपादन किया।
- गोरखनाथ की रचनाएँ : सबदी, प्राणसांकली, नरवैबोध, अभैमात्रायोग, पंद्रहतिथि, आत्मबोध, ज्ञान चौतिसा, गोरख गणेश गोष्ठी, योग चिंतामणि।
4. जैन साहित्य / रास साहित्य
- जैन संप्रदाय भारत के पश्चिमी क्षेत्रों में सर्वाधिक मात्रा में फैला हुआ है।
- इनके द्वारा रचित साहित्य आदिकालीन साहित्य में सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है।
- जैन साहित्य रास, फागु, चरित तथा आचार शैली में रचित है।
जैन साहित्य की प्रवृतियां
- अलौकिकता के आवरण में प्रेमकथा, नीति, भक्ति आदि विषयों का निरूपण।
- घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता को प्रधानता।
- बाह्याचारों का विरोध और आत्मशुद्धि पर बल।
- शांत रस प्रधान काव्य।
- जैन साहित्य रास, फागु, चरित तथा आचार शैली में रचित है।
- धार्मिक साहित्य होते हुए भी इसकी साहित्यिकता अक्षुण्ण है।
- जैन साहित्य आदिकालीन साहित्य में सर्वाधिक विश्वसनीय माना जाता है।
प्रसिद्ध जैन कवि और उनकी रचनाएँ :-
(1) शालिभद्र सूरि – भरतेश्वर बाहुवली रास (1184 ई.)
- भरतेश्वर अयोध्या तथा बाहुबली तक्षशिला का प्रतापी शासक था।
- भरतेश्वर बाहुबली रास 205 छंदों में रचित ‘खण्डकाव्य‘ है।
- वीर, श्रृंगार तथा शांत रस में रचित काव्य।
- मुनि जिन विजय ने इस ग्रंथ को जैन साहित्य की रास परम्परा का प्रथम ग्रंथ माना है।
- शालिभद्र सूरि की अन्य रचनाएं – बुद्धिरास, पंच पाण्डव रास
(2) आसगु – चंदनबाला रास और जीवदया रास
चंदनबाला रास ग्रंथ की नायिका चंदनबाला चंपा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री थी।
अन्य प्रसिद्ध जैन कवि और उनकी रचनाएं
क्र.सं. | जैन कवि | रचना |
3. | जिनधर्म सूरी | स्थूलिभद्र रास |
4. | विजयसेन सूरि | रेवंतगिरि रास ( रेवंतगिरि पर्वत का वर्णन ) |
5. | सुमति गणि | नेमिनाथ रास |
6. | प्रज्ञा तिलक | कच्छुलि रास |
7. | देल्हण | गय सुकुमार रास |
8. | जिनदत्त सूरि | उपदेश रसायन रास |
9. | सोमप्रभ सूरि | कुमारपाल प्रतिबोध |
10. | पद्मनाभ | कान्हड़देव प्रबंध |
11. | उद्योतन सूरि | कुवलयमाला |
12. | विनयचंद्र सूरि | नेमिनाथ चउपई |
13. | हरिभद्र सूरि | नेमिनाथ चरिउ |
14. | राजशेखर सूरि | नेमिनाथ फागु |
15. | सुमति गणि | नेमिनाथ रास |
16. | कनकामर मुनि | करकंड चरित्त रास |
अपभ्रंश में रचित आदिकालीन साहित्य
- स्वयंभू :- डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार स्वयंभू की चार रचनाएं है –
- (I) पउमचरिउ ( पद्मचरित ) – इस रचना को जैन साहित्य या अपभ्रंश साहित्य की ‘रामायण‘ कहा जाता है तथा इस रचना के आधार पर स्वयंभू को ‘अपभ्रंश का वाल्मिकि‘ कहा जाता है।
- इस रचना में 5 काण्ड व 90 संधियाँ है। 90 में से 83 संधियाँ स्वयंभू द्वारा रचित है तथा शेष 7 इनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित है।
- (ii) रिट्ठणेमि चरिउ ( अरिष्टनेमि चरित्र )
- (iii) पंचमि चरिउ
- (iv) स्वयंभू छंद
विशेष :- पउमचरिउ को कड़वक शैली में रचित प्रथम ग्रंथ माना जाता है। कड़वक शैली = 7 चौपाई + 1 दोहा
2. पुष्पदंत – महापुराण ( त्रिष्टी महापुराण )
जैन धर्म के 63 श्लाका पुरुषों का वर्णन
अन्य रचनाएं – णयसुकुमार रास ( नागकुमार चरित्र ) व जसहर चरिउ ( यशोधरा चरित्र )
- शिवसिंह सेंगर ने पुष्पदंत को ‘अपभ्रंश का भवभूति‘ कहा है।
- महापुराण ग्रंथ के आधार पर इनको ‘अपभ्रंश का वेदव्यास‘ भी कहा जाता है।
3. धनपाल – भविष्यदत्त कहा – 10 वीं शताब्दी की रचना
- इतिहासकार विंटर नित्स ने इस रचना को ‘रोमांटिक महाकाव्य‘ कहा।
4. जोइन्दु – परमात्म प्रकाश और योगसार
5. मुनि रामसिंह – पाहुड़ दोहा – तत्वज्ञान तथा इन्द्रिय विग्रह सम्बन्धी उपदेश
6. हेमचन्द्र – सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन ( व्याकरण ग्रंथ )
- हेमचंद्र को ‘प्राकृत / अपभ्रंश का पाणिनि’ कहा जाता है। ( सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशान के आधार पर )
कुमारपाल चरित्र – हिन्दी साहित्य में ‘द्वयाश्रय’ शैली में रचित प्रथम ग्रंथ।
योगशास्त्र – प्राकृत व्याकरण
छन्दानुशासन
देशीनाम माला – ( कोश ग्रंथ )
7. मेरुतुंग – प्रबंध चिंतामणि
विशेष :- कुमारपाल प्रतिबोध रचना के लेखक सोमदत्त सूरि है।
अब्दुल रहमान / अद्दहमाण – संदेश रासक
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ‘हिन्दी का पहला कवि’ कहा है।
- संदेश रासक का रचनाकाल 12 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तथा 13 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध।
- भारतीय भाषा में रचना करने वाले हिन्दी के प्रथम मुसलमान कवि ।
- संदेश रासक को श्रृंगार काव्य परम्परा की प्रथम रचना माना जाता है।
- इस ग्रंथ में विक्रमपुर की वियोगिनी के विरह का वर्णन है।
5. आदिकालीन फुटकर साहित्य / स्वतंत्र साहित्य
विद्यापति
- जीवनकाल – 1380 ई. से 1460 ई. तक ( NCERT ) व 1360 ई. से 1445 ई. इतिहास ग्रंथ के अनुसार
- विद्यापति तिरहुत के राजा शिवसिंह के दरबारी कवि थे।
- विद्यापति को आदिकाल और भक्तिकाल का संधि कवि कहा जाता है।
- विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानने वाले विद्वान – आ. रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा, महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. बच्चन सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी
- विद्यापति को भक्त कवि मानने वाले विद्वान – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुन्दर दास
- विद्यापति को रहस्यवादी कवि मानने वाले विद्वान – जॉर्ज ग्रियर्सन, डॉ. नागेन्द्रनाथ गुप्त
- आचार्य शुक्ल ने विद्यापति को शुद्ध शृंगारी कवि कहा है।
- विद्यापति को उनकी पदावली के आधार पर भक्तकवि बताने वालों का विरोध करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है। :- “आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं।”
विद्यापति की रचनाएँ – 1. कीर्तिलता 2. कीर्तिपताका 3. पदावली 4. भू-परिक्रमा 5. पुरुष परीक्षा 6. लिखनावली 7. गंगा वाक्यावती 8. दुर्गा भक्त तरंगिणी
- विद्यापति ने कीर्तिलता रचना में स्वयं को ‘खेलन कवि‘ कहा है तथा कीर्तिलता को ‘कहानी‘ कहा है।
- कीर्तिलता रचना में अवहट्ठ को ‘देसिल बयना‘ कहा है।
“देसिल बयना सब जन मिट्ठा”
कीर्तिलता रचना में अवहट्ठ के संबंध में
- पदावली के आधार पर विद्यापति को ‘मैथिल कोकिल‘ तथा ‘अभिनव जयदेव‘ कहा जाता है।
- आ. रामचन्द्र शुक्ल ने कीर्तिलता की भाषा को ‘पूर्वी अपभ्रंश‘ या ‘टकसाली अपभ्रंश‘ कहा है।
- कवि निराला ने पदावली को ‘नागिन की मादक लहर‘ कहा है।
- डॉ. बच्चन सिंह ने विद्यापति को ‘जातीय कवि‘ कहा है।
- हिन्दी में कृष्ण को काव्य का विषय बनाने का प्रथम श्रेय विद्यापति को है।
- कीर्तिलता की रचना ‘भृंग-भृंगी‘ संवाद में हुई है।
अमीर खुसरो
( 1255 ई. से 1324 ई. ) स्थान – कासगंज जिला, पटियाली गांव
- अमीर खुसरो का मूल नाम अबुल हसन था।
- अमीर खुसरो आदिकाल के अन्तिम चरण के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि है।
- अमीर खुसरो निजामुद्दीन औलिया के शिष्य है।
“गौरी सोवे सेज पर, मुख पर डाले केस।
अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के संबंध में अमीर खुसरो का कथन
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥”
- खड़ीबोली का प्रथम प्रयोग इनके काव्य में मिलता है।
- डॉ. रामकुमार वर्मा ने इनको अवधी का प्रथम कवि कहा है।
- ब्रज और अवधी को मिलाकर काव्य रचना का प्रथम प्रयास भी अमीर खुसरो ने किया ।
- अमीर खुसरो को ‘तोता-ए-हिन्द‘ या ‘हिन्दुस्तान की तूती‘ कहा जाता है।
- दिल्ली के सिंहासन पर ग्यारह (11) शासकों का उत्थान-पतन देखा।
- डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने खुसरो को ‘महाकवियों का राजकुमार‘ कहा है।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी दो प्रकार की भाषा बताई है :- 1. ठेठ बोलचाल की खड़ीबोली – पहेलियां, मुकरियां और दो सकुनों की भाषा 2. ब्रजभाषा / प्रचलित काव्यभाषा – गीतों और दोहों की भाषा
अमीर खुसरों की रचनाएं :- 1. पहेलियां 2. मुकरियाँ 3. खालिकबारी – यह फारसी हिन्दी शब्दकोश है। इनकी रचना ग्यासुद्दीन तुगलक पुत्र को भाषा ज्ञान देने के उद्देश्य से किया गया। 4. नुहसिपहर :- इस ग्रंथ में भारतीय बोलियों के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन है।
- ‘सितार का आविष्कार’ अमीर खुसरो ने किया था।
ढोला मारु का दूहा
- कवि कल्लोल द्वारा रचित एक प्रेम काव्य
- मूलत: यह रचना ‘दूहा छंद’ में थी किन्तु 17 वीं शताब्दी में कुशललाभ / कुशलराय ने इनमें चौपाइयाँ जोड़कर विस्तार कर दिया।
- इस रचना में कच्छवाहा नरेश नल्ल के पुत्र ढोला, पुंगलगढ़ के राजा पिंगल की पुत्री मरवण तथा मालवा की राजकुमारी मालवण के प्रेम त्रिकोण आधारित है।
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘ढोला- मारु रा दूहा’ रचना के दोहों को हेमचन्द्र और बिहारी के बीच की कड़ी माना है।
आदिकालीन गद्य साहित्य
राउलवेल – रोड़ा कवि
- यह रचना 10 वीं शताब्दी में कवि ‘रोड़ा‘ द्वारा रचित है। यह एक ‘शिलांकित कृति‘ है।
- यह हिन्दी साहित्य का प्रथम चम्पू काव्य है। ( गद्य + पद्य )
- नख-शिख वर्णन का प्रथम प्रयोग इस रचना में हुआ है।
- इस ग्रंथ की नायिका ‘राउल‘ का सौन्दर्य वर्णन पहले पद्य में तथा बाद में गद्य में किया गया है।
- इस ग्रंथ में 7 बोलियों के शब्द है। ( सर्वाधिक – राजस्थानी के )
बसंत विलास
- यह 13 वीं शताब्दी का एक शृंगारिक काव्य है। इस ग्रंथ का सर्वप्रथम संपादन ‘केशवलाल हर्षदराय’ ने किया।
- इस रचना में वसंत ऋतु का नायिकाओं के मन पर पड़ने वाला प्रभाव चित्रित है।
उक्ति-व्यक्ति प्रकरण – दामोदर कवि ( दामोदर शर्मा )
- यह 12 वीं शताब्दी का एक व्याकरण ग्रंथ है।
- इस ग्रंथ में बनारस शहर की संस्कृति का चित्रण हुआ है।
वर्ण रत्नाकर – ज्योतिश्वर ठाकुर
- 14 वीं शताब्दी की यह रचना मैथिली भाषा में रचित एक शब्दकोश है।
- इस रचना को ‘मैथिली गद्य की प्रथम पुस्तक’ तथा ‘मैथिली का विश्वकोश’ भी कहा जाता है।
- इस रचना में हिंदू दरबार और भारतीय जीवन पद्धति का यथार्थ चित्रण मिलता है।
आदिकाल : कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिंदु
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल को ‘अनिर्दिष्ट युग प्रवृत्ति’ का काल कहा है।
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोधों तथा व्याघातों’ का युग कहा है।
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Plz bhaktikal ka bhi de
Ji… Hindi Sahitya Ke Notes Tyar kiye ja rahe h…Complete Hote hi Upload kar diye jayenge.
सारे नोट्स कब तक तैयार हो जायेंगे
जी थोड़ा समय लगेगा.. मार्च तक सभी नोट्स पीडीएफ प्रारूप में बनकर तैयार हो जाएंगे।
बहुत बहुत धन्यवाद! बहुत सटीक सुंदर सामग्री है❤️। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए रामबाण । भक्तिकाल और आधुनिक काल का भी आ जाए तो बहुत आभार होगा
🥰🥰
सर, यह पीडीएफ बहुत उपयोगी है। मैं केरल से हूं। संपूर्ण पीडीएफ एक क्लिक में प्राप्त करने के लिए मैं आपको जितना धन्यवाद दूं, कम है। बाकी का इंतजार है.
जी बाकी के नोटिस भी जल्दी ही प्रोवाइड करा दिए जाएंगे। आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत-बहुत आभार 🥰
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Sir ji pdf kha se prapt kr sakte hai sare
जी उस पर अभी काम किया जा रहा है। जल्दी ही सूचित कर दिया जाएगा। 🙏
its very meaningfully and systematically given. Thank you so much
🥰🥰🥰🙏
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बेहद शानदार संकलन 🥰🙏
Thanks Ji 🥰🙏